Monday, December 20, 2010

मन यह तन का प्यासा...

डॉ. सामबे 

घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। वही घर। वही दफ्तर। वही जिन्दगी। रोज-रोज घड़ी की वही टिक-टिक और रोज-रोज घर की वही किच-किच। पिच-पिच जिन्दगी। नीरस जिन्दगी। ऐसे में आदमी खुशी की तलाश में निकल पड़ता है। ऐसे ही सुख की चाहत में हम 30 लोग थाईलैंड ट्रिप के लिए कोलकाता एयरपोर्ट पर इकट्ठा हुए थे।

सबेरे साढ़े आठ बजे की फ्लाइट थी। एयरपोर्ट की औपचारिकताएं भी थीं। ट्रॉली में सामान लिए हमलोग उन औपचारिकाएं से गुजरने के लिए आगे बढ़ रहे थे। हमलोग भी इत्मीनान से इमिग्रेशन अफसर से रूबरू होने के वास्ते कतार में खड़े थे। इनमें कुछ अपनी पत्नी के साथ आए थे। सभी अपनी चिंताएं घर पर छोड़कर आए थे और सैर-सपाटे और मौज-मस्ती के मूड में थे।

कतार में मेरे आगे कुमार थे, पीछे मनोज गुप्ता। मनोज ने कहा, 'इमिग्रेशन अफसर पूछेगा कि थाईलैंड क्यों जा रहे हैं तो क्या आप सच-सच बताएंगे?' पलभर के लिए हम खामोश हो गए। आगे-पीछे के लोग हंसने लगे।

मुझे बाबा नागार्जुन की कविता याद आ गई ‘कालिदास सच-सच बतलाना।’ यहां तो अब मुझे इमिग्रेशन अफसर को सच-सच बतलाना होगा। मैंने मनोज से पूछा, ‘सच ही बतलाना होगा क्या?’ मनोज ने हंसते हुए कहा, ‘झूठ पकड़नेवाली मशीन लगी है, झूठ बोले, तो पकड़े जाएंगे और जाने की अनुमति नहीं मिलेगी।’ मैं पसोपेश में पड़ गया। फिर याद आई एक बात।

उस समय अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने थे और एक पत्रकार ने इंटरव्यू के दौरान उनसे एक पर्सनल सवाल किया था। सवाल था- ‘आप कुंवारे हैं या अविवाहित?’ सवाल सुनते ही वाजपेयी जी ने ठहाका लगाया और पूछा, ‘सच कहूं या झूठ?’ पत्रकार ने कहा, ‘जी, सच ही बताएं।’ वाजपेयी जी का जवाब था, ‘अविवाहित हूं।’ मैंने साथियों को यह किस्सा सुनाते हुए कहा कि अगर इस प्रकार के सवालों से टकराने की नौबत आई, तो जवाब भी उसी अंदाज में दूंगा। शानदार सवाल का, जानदार जवाब।

मैंने कहा कि हमारे सभ्य समाज का चलन भी बड़ा विचित्र है। हर आदमी दूसरे के मन को टटोलता है और हर आदमी अपने मन की बात औरों से छिपाता है, जबकि सभी जानते हैं कि सबके मन में कौन-कौन सी इच्छाओं की रंगीन मछलियां तैर रही हैं। मगर कोई उसे पकड़ने नहीं देता। मन की इच्छाओं की रंगबिरंगी मछलियां। मेरे कुछ पीछे अग्रवाल खड़े थे। मेरी बातें सुनकर उन्होंने कहा, ‘मछुआरे के रूप में जाल बिछाकर इमिग्रेशन अफसर वहां बैठा है।’ हमलोग हंसने लगे। कुमार ने कहा, ‘हमारे शासन-प्रशासन और हमारी सभ्यता का चलन यही है। इसी के बीच जीवन है। वर्जनाओं के व्यूह में हमारा जीवन है। इस चक्रव्यूह से निकलने का रास्ता मालूम नहीं है।’

मैंने कहा, ‘कुमार आप ठीक कह रहे हैं। कवियों ने इससे निकलने के रास्ते ढूंढे हैं। वे कल्पनाओं का सहारा लेते हैं। प्रतीकों के माध्यम से अपनी भावनाओं को प्रकट करते हैं। भावनाएं रूप बदलकर प्रकट होती हैं। वे उदात्त रूप में सामने आती हैं। इससे न प्रचलित नैतिकता और न समाज को कोई आपत्ति होती है।

‘हिन्दी के महान कवि थे अज्ञेय जी। देखिए उनके भीतर की भावना किस प्रकार कविता में प्रकट होती है - देख क्षितिज पर भरा चांद, मन उमगा, मैंने भुजा बढ़ाई। यहां दबी हुई काम भावना का रूप है चांद। चांद-सी महबूबा। चांद को पकड़ने के लिए मन में काम का वेग उठने लगा और हाथ बढ़ा दिया। हमारे समाज की रूढ़ियों की बड़ी लंबी परंपरा है और उसे बाहर निकलने का यह एक रचनात्मक तरीका है।’

मैंने आगे कहा, ‘मनुष्य के मन की बात मन से कविता बनकर निकलती है। रघुवीर सहाय की कविता है - आओ नहाएं। पंक्ति है - थके-थके एक-दूसरे को उघरे देखें। और न शरमाएं।’ सुनकर बाकी लोग हंस दिए। पीछे खड़े मनोज ने चुटकी ली, ‘थाईलैंड में नहाने की बड़ी शानदार व्यवस्था है।’

कुमार ने बात आगे बढ़ाई, ‘मनुष्य के मन में नारी देह को देखने की लालसा सदियों से रही है। ज्यां पॉल सार्त्र की कहानी ‘इरोस्ट्रैटस’ का मेन कैरक्टर हर शनिवार को एक वेश्या के यहां जाता, जो उसके सामने कपड़े उतार देती और वह बिना छुए उसे देखता रहता...’

मैंने जोड़ा, ‘सार्त्र बौद्धिक जगत में हलचल मचा देनेवाले विचारक थे। सार्त्र से मिशेल कोंता की बातचीत सत्तर के दशक में हुई थी। उसी बातचीत में सार्त्र ने कहा था - मैं तो यह सोच भी नहीं सकता कि शरीर को हम चाहे जिस ढंग से प्रस्तुत करें, पर विचारों को छिपाए रखें। मैं शरीर और चेतना में कोई मूलभूत अंतर नहीं मानता। हम अपने शरीर को हरेक के सामने समर्पित करते हैं - यौन संबंधों के क्षेत्र से परे भी। देखने से। छूने से। मेरा शरीर तुम्हें समर्पित है। तुम्हारा मुझे। शरीर के रूप में हमारे लिए एक-दूसरे का अस्तित्व है। मगर चेतना के स्तर पर हमारे लिए एक-दूसरे का अस्तित्व नहीं है। मैं उस दिन की कल्पना करता हूं, जब किन्हीं भी दो व्यक्तियों के बीच कुछ भी गोपनीय नहीं होगा। मैं समझता हूं कि लोगों के बीच रिश्ते खराब इसलिए होते हैं कि वे अपने मन में दूसरे से कुछ-न-कुछ छिपाकर रखते हैं।’

कुमार बोले, ‘कितनी बड़ी बात है। शरीर के लिहाज से हम एक-दूजे के लिए हैं। मगर चेतना के स्तर पर नहीं। फैशन शो में रैम्प पर किस प्रकार अपने-अपने शरीर को प्रस्तुत करती हैं लड़कियां। मगर वे मन को खोलकर रखने से डरती हैं। वे भागती हैं। इसलिए बीमार हैं।’

मैंने हंसते हुए कहा, ‘मनुष्य के मन में इच्छाएं उत्पन्न होती हैं। सामाजिक दबाव के चलते ढेर सारी इच्छाएं पूरी नहीं हो पातीं। अनेक इच्छाओं को दबाना पड़ता है। इच्छाओं के दबने से बेचैनी होती है। सड़कों पर लाल-पीली होती ट्रैफिक लाइट की रोशनी की तरह हमारे मन में भी इच्छाओं की रोशनी लाल-पीली होती रहती है...’

तब तक मेरा नंबर आ चुका था। बात वहीं खत्म हो गई। मैं पासपोर्ट, वीजा, एयर टिकट लेकर इमिग्रेशन अफसर के सामने हाजिर हुआ। सब देखने के बाद उसने पूछा, ‘क्यों जा रहे हैं थाईलैंड?’ मैंने कहा, ‘घूमने-फिरने। सैर-सपाटे के लिए। तरोताज़ा होने के लिए।’ उसने मुझे गौर से देखा और फिर मेरे कागजात का जायज़ा लिया। बिना कुछ और सवाल किए उसने मुझे जल्दी ही छोड़ दिया।

अब सिक्योरिटी चेक से गुज़रे और ऊपर एयरपोर्ट के वेटिंग हॉल में दाखिल हुए। कुछ लोग शराब खरीदने डयूटी-फ्री शॉप में चले गए। कुछ लोगों ने कहा, ‘बैंकॉक एयरपोर्ट पर सस्ती मिलेगी, वहीं शराब खरीदेंगे।’ हमलोग वेटिंग हॉल में बैठ गए।
गली पोस्ट पढें-

काम के आवेग में टूट जाती हैं मर्यादाएं...

डॉ. सामबे  Friday December 10, 2010

पिछली पोस्ट से आगे-
फ्लाइट की घोषणा अभी नहीं हुई थी। न्यूजपेपर स्टैंड से एक न्यूजपेपर लेकर हम चेयर पर बैठे थे। कुमार की पत्नी घर पर थी और वह मोबाइल फोन से बातें कर रही थी। कुछ लोग रुपये को डॉलर में बदलने के लिए लाइन में खड़े थे। कुछ कॉफी पी रहे थे। सभी फ्लाइट की घोषणा की प्रतीक्षा कर रहे थे। कुमार और उसकी पत्नी के बीच फोन पर बातचीत समाप्त हो चुकी थी।

मैंने कुमार से कहा कि ‘मनुष्य की प्रवृत्तियों का एक विशाल संग्रहालय है - हमारी माइथोलजी। मनुष्य की प्रवृत्तियों को देखना और समझना हो, तो इससे गुजरना चाहिए।’ इसी बीच मनोज भी आ गए। वह बगल में बैठ गए। मैंने उसे देखते ही कहा, ‘जानते हैं नारी के मन को? वह हंसते हुए बोले, ‘नारी अपने मन की बात बोले, तभी तो जान पाएंगे।’ मैंने कहा, ‘सुनिए भागवत की एक कथा। वाणासुर दैत्यराज बलि का पुत्र था और उसकी एक कुंवारी कन्या थी ऊषा। ऊषा की सहेली थी चित्रलेखा। वह वाणासुर के मंत्री कुम्भांड की पुत्री थी। एक दिन ऊषा सोई थी। स्वप्न में उसने देखा कि एक सुंदर नवयुवक अपने अधरों का मधुर मधु उसे पिला रहा है। वह अभी तृप्त भी नहीं हो पाई थी कि वह नवयुवक गायब हो गया। वह सपने में बड़बड़ाने लगी - प्राणप्यारे, तुम कहां हो? तभी उसकी नींद टूट गई और सहेलियों के बीच स्वयं को देखकर शर्मा गई।

‘ऊषा ने चित्रलेखा को अपने स्वप्न की बात बताई और कहा कि मैं उसी को ढूंढ रही हूं। उसने स्वप्न में देखे नवयुवक का वर्णन करते हुए बताया कि कमल के समान उसकी आंखें थीं। रंग सांवला-सांवला-सा था। लंबी-लंबी भुजाएं थीं। पीताम्बर उसके शरीर पर लहरा रहा था। ऊषा के वर्णन को सुनकर चित्रलेखा ने स्केच तैयार किया। तस्वीर बनकर सामने आई, तो वह श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध की थी।
 चित्रलेखा ऊषा को चित्र दिखाती हुई।

‘चित्रलेखा के सहयोग से अनिरुद्ध ऊषा के महल में दाखिल हुए। ऊषा प्रसन्न हो गई। दोनों में गहरा प्रेम हो गया। समागम हुआ और उसके स्पष्ट चिह्न ऊषा के चेहरे पर दिखाई पड़ने लगे। इसकी खबर वाणासुर को मिली। वाणासुर दल-बल के साथ महल में दाखिल हुआ। अनिरुद्ध की सहायता के लिए कृष्ण पहुंचे। कृष्ण ने प्रह्लाद को वचन दिया था कि वह उसके वंश के किसी दैत्य का वध नहीं करेंगे। सो वाणासुर की सेनाओं का संहार करके उसके अनेक हाथों को काट डाला। उसका घमंड चूर हो गया। उसने खुद को समर्पित कर दिया। अनिरुद्ध ऊषा को रथ पर बिठा कर कृष्ण के पास चले गए। यह है सुखद अंत। आशा और अभिलाषा की तृप्ति।’

मनोज ने कहा, ‘इस कहानी से तो यही पता चलता है कि तन की तृप्ति के बिना मन की तृप्ति नहीं है।’ अग्रवाल जो इस वार्ता को ध्यान से सुन रहे थे, बोले, ‘प्रेम की सफलता तभी मानी जा सकती है जब मन और तन दोनों की तृप्ति हो जैसा कि हमारी फिल्मों में होता है। लेकिन इन कथाओं में तन की तृप्ति के किस्से ज़्यादा हैं, मन की तृप्ति के कम। भरत के दत्तक पुत्र भारद्वाज का नाम आपने सुना होगा। यह भी भागवत की कथा है। बृहस्पति मुनि का भाई था उतथ्य। उसकी पत्नी थी ममता। वह गर्भवती थी। एक बार कामातुर अवस्था में बृहस्पति मुनि ने ममता यानी अपने भाई की पत्नी के साथ मैथुन करना चाहा। गर्भ में पल रहे बालक ने ऐसा करने से रोका। बृहस्पति मुनि ने भड़क कर कहा -तूं अंधा हो जा। यह शाप देकर बृहस्पति मुनि ने जोर-जबरदस्ती संभोग किया – एक तरह से रेप। भयभीत ममता को लगा कि उसका पति उसे छोड़ न दे, इसलिए उसने इस लड़के को त्यागने का फैसला किया। बृहस्पति ने समझाया कि अरी मूढ़े! यह मेरा औरस और मेरे भाई का क्षेत्रज दोनों का पुत्र है - द्वाज। तू डर मत। इसका भरण-पोषण कर। इसी से यह भारद्वाज कहलाया। यही भरत का दत्तक पुत्र हुआ।’

कुमार बोले, ‘भारद्वाज का नाम तो हमारे यहां बड़े आदर से लिया जाता है। मुझे ऐसी ही एक कथा ऋग्वेद की याद आ रही है  - कक्षीवान की। कक्षीवान उषिज नाम की दासी के स्वच्छंद कामाचार से उत्पन्न हुआ था। इसी में घोषा का बुढ़ापे में विवाह करने की कथा है।’ इसी चर्चा में आकर मिश्रा जी जुड़ गए और बोले, ‘इससे भी बढ़कर ऊषा और पूषा के यौन संबंध की कथा हैं। यह कथा तो माथा चकराने वाली है।  ऊषा बहन है और पूषा भाई। कामातुर अवस्था में ऊषा कहती है -हे भाई! जैसे रतिकामिनी पत्नी अपने पति के साथ एक बिस्तर पर सोती है। अपने गुप्तांगों को खोलकर स्वच्छंद संभोग से अपने को तृप्त करती है। ऐसे ही मैं तुम्हारे साथ स्वच्छंद समागम से परितृप्त होना चाहती हूं। कुंती और द्रौपदी जैसी कुंवारी और विवाहित स्त्रियां अपनी इच्छा के अनुसार पुरुषों से समागम करती हैं। इसके अलावा प्रजापति ब्रह्मा का अपनी पुत्री सरस्वती के साथ समागम व्यापार की कथा भी ऋग्वेद में पढ़ने को मिलती है।’

यह सुनकर सिन्हा जी बोले, ‘यह केवल हमारे ग्रंथों में नहीं है। बाइबल में भी राजा हेरद और सेलामी की कहानी पढ़ने को मिलती है। सेलामी राजा हेरद की भतीजी थी और वह अपनी भतीजी पर मुग्ध हो गया था।’

मैने कहा, ‘ये सारी कथाएं हमें बताती हैं कि काम भावना जब मनुष्य पर नियंत्रण कर लेती है, तो उसे काम के अलावा कुछ नहीं सूझता है। काम की आंधी और अंधियारे में सारी प्रचलित नैतिकताएं और मर्यादाएं ध्वस्त हो जाती हैं। प्रत्येक मनुष्य के पास एक मन है। मन में कामवृत्ति है। काम का वेग है। यह हम जानते है। मगर हमें यह भी जानना चाहिए कि मन विषयों में कैसे चलता है? यह जानने के बाद ही हमें चैन मिलेगा। कामवृत्ति की तृप्ति पर पलभर के लिए चैन मिलता है। इच्छाएं फिर उत्पन्न होती हैं और बेचैनी फिर पैदा हो जाती है। यह पलभर का भ्रम ही होता है कि यौनतृप्ति में शांति और शीतलता है। जैसा कि रघुवीर सहाय मानते थे। उनकी कविता है – ‘पानी’ और ‘पानी के संस्मरण।’ पंक्ति है - ताप हरता है मन का/दुख विनसता है। सवाल है कि कितनी देर?’

इसी बीच हमारी फ्लाइट की घोषणा हुई। हमलोग कतार में खड़े हो गए और विमान के अंदर जाकर अपनी-अपनी सीट पर बैठने लगे। मुझे खिड़कीवाली सीट मिली। मुझे खुशी हुई। दिन के समय विंडो सीट पर बैठकर हवाई यात्रा का मज़ा ही कुछ और होता है।

मिशनरियों के कारण खो गया खजुराहो का सत्य

डॉ. सामबे  Friday December 17, 2010

पिछली पोस्ट से आगे -
एयर इंडिया के विमान IX-922 के भीतर हमलोग अपनी-अपनी सीट पर बैठ चुके थे। कुमार मेरी बगलवाली सीट पर और उनकी बगल में एक बांग्लादेशी युवक बैठा था। एयर होस्टेस संकेत से यात्रियों को सीट बेल्ट कमर में बांधने को कह रही थी। वह मास्क लगाए हुए थी। सभी एयर होस्टेस को देख रहे थे।

मयूर की तरह विमान रन-वे पर चलने लगा। इसी बीच एयर होस्टेस करीब आई  तो मैंने मास्क के बारे में पूछा। वह बड़े अदब से बोली, स्वाइन फ्लू, सर। मेरे मुंह से निकला, ‘यह स्वाइन फ्लू सब कबाड़ा कर गया! प्लेन के अंदर हम और मास्क से चेहरा छुपाए एयर होस्टेस! यानी ढकी हुई थाली, वह भी वेज! जय हो!’ मेरी बात सुनकर मेरे सहयात्री हंस पड़े। विंडो के बाहर झांककर देखा, विमान जमीन से ऊपर उठने लगा था।

कुमार से मैंने कहा, ‘कोणार्क, पुरी, खजुराहो - इन मंदिरों की दीवारों पर मैथुन-मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों का संदेश है कि संसार मैथुनमय है। संसार में मन्मथ भाव की प्रधानता है। यह द्वैत में अद्वैत का आनंद देती है। मंदिर के बाहर की दीवारों पर मैथुन-मूर्तियों के अंकन हैं। जीवन के प्रथम सोपान। प्रस्थान विंदु। मंदिरों के बाहर की दीवारों पर उत्कीर्ण इंद्रिय-रस-युक्त मैथुन- मूर्तियां अद्भुत हैं। यह प्रकृति-पुरुष का मिलन है। हमारे यहां काम को कामदेव और कामेश्वर माना गया है। वह आदिदेव है। कामशास्त्र पर ब्रह्मा का प्रवचन है...’ पीछे बैठे अग्रवाल के कानों में हमारी बात थोड़ी-थोड़ी पड़ रही थी। वह बोले, ‘लगता है, कुछ काम की बात हो रही है। मैं भी आता हूं।’ कहकर वह अपनी सीट से उठे। कुमार की बगल में बैठे बांग्लादेशी यात्री से अनुरोध किया कि वह उनसे सीट बदल लें। वह मान गया और अग्रवाल कुमार की बगल में आ गए।

अग्रवाल बोले, ‘काम एक प्रबल शक्ति है। काम का वेग बड़ा प्रबल है। लोग इसमें बहते हैं और बहते ही चले जाते हैं। खुद को रोक नहीं पाते हैं। क्या इसको रोकने की कोई युक्ति है? यानी जब चाहें तब बहें, जब चाहें न बहें। यानी काम हमारे वश में रहें और हम काम के वश में न रहें!’ मैंने कहा, ‘हां, है। मगर हम उस युक्ति को नहीं जानते। हम वह विधि ही नहीं जानते हैं, जिस विधि से काम के वेग को नियंत्रित किया जाता है। हम सिर्फ निंदा करके मुक्ति पाना चाहते। मगर काम भावना की भर्त्सना और निंदा से कोई नतीजा नहीं निकलता। काम भावना को रहस्यमय बनाने से भी कोई निष्कर्ष नहीं निकलता।’

मैंने कहा, ‘हिंदी की साहित्यकार मृदुला गर्ग की मानें तो हमलोग सेक्स को मिस्टीक बनाकर देखते हैं। या तो हम उसे सिर्फ पशुवृत्ति के रूप में देखते हैं या उसे ईश्वरप्राप्ति का साधन मानने लगते हैं। जब हम सेक्स को सिर्फ पशुवृत्ति के रूप में देखते हैं, तो यह भी मान लेते हैं कि यह हमारी आत्मा को कलुषित करती है। ऐसे में हर आदमी का यह फर्ज हो जाता है कि वह अपने शरीर को नकारे और औरतों के शरीर से भी दूर रहे। सेक्स को प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम मानने की स्वस्थ परंपरा न जाने कब हमसे छूट गई है।’ कुमार ने सहमति में सर हिलाया।

इसी बीच एयर होस्टेस ब्रेकफस्ट पैकेट और चाय लेकर आई। हमलोग जलपान करने लगे। विमान बादलों की बस्ती से गुजर रहा था। चाय की चुस्की के साथ बातचीत भी जारी थी। मैंने कहा, ‘मृदुला गर्ग सेक्स को प्रेम की अभिव्यक्ति का माध्यम मानने की बात वह करती हैं। मेरा कहना है कि सेक्स में सुख है। सभी सहमत हैं। तब मेरा सवाल है कि सेक्स सुख में बुराई क्या है? सेक्सुअल प्लेजर में बुराई क्या है?’

कुमार ने कहा, ‘यह सवाल बड़ा मौलिक है। यौनसुख पाने का कोई भी प्रयास जो किसी प्रकार की बीमारी नहीं फैलाता, कोई अराजकता पैदा नहीं करता, जोर-जबरदस्ती नहीं करता, उस प्रयास में बुराई क्या है? जरा सोचिए।।’

‘सही बात है,’ मैंने कहा, ‘हमारी प्राचीन भारतीय परंपरा में कामसुख को गंदा और बुरा मानने का चलन नहीं था। हम गुलाम रहे और विदेशी शासको की विचारधारा हम पर हावी हो गई। हम कामसुख को गंदा और बुरा मानने लगे। मुसलमानों का करीब 400 वर्षों तक राज रहा। फिर पुर्तगाली, अंग्रेज, डच और फ्रांसीसियों ने यहां उपनिवेश बनाया। इसमें अंग्रेज सबसे ज्यादा शक्तिशाली थे और उन्होंने संपूर्ण भारत पर अपना साम्राज्य, सत्ता, संस्कृति और विचार स्थापित किए। इसी दौरान कामसुख के बारे में हमारे निष्पक्ष विचार खो गए और अंग्रेजों के प्रभाव में आकर हमने काम को पाप मान लिया और नारी को नरक का द्वार। ईसाई मिशनरी ने हमें यही सिखाया। ईसाई मिशनरी नारी से बचने और उसे दंडित करने की बात करती है।

गुप्ता पीछे बैठ हमारी बातें ध्यान से सुन रहे थे। वह बोले, ‘यह तो मेरे लिए एक नई जानकारी है। मैं तो समझता था कि अंग्रेज़ों ने हमें मॉडर्न बनाया और आप कह रहे हैं कि उन्हीं के कारण हम सेक्स के मामले में दकियानूसी बने। मैंने कहा, ‘हां। ईसाई मिशनरी की मान्यताएं और कथाएं हमारे दिल-दिमाग में बैठ गई। आदम-हव्वा की कहानी में हम डूब गए। हमारे जेहन में भी आरंभिक पाप की अवधारणा घुस गई। इडेन गार्डेन में आदम और हव्वा ने वर्जित फल चखा और नीचे गिरा। हमने काम को नीचे गिरानेवाली प्रवृत्ति मान लिया। हमारे भीतर काम भावना उत्पन्न होने के साथ-साथ अपराध बोध भी उत्पन्न होने लगा। कामसुख में बुराई देखने की आदत बन गई। यहीं से हमारे मन में सेक्स के बारे में घृणित छवियां और प्रतिमाएं बनने लगीं। इन्हीं मान्यताओं से हमारे समाज में लोक प्रचलित मान्यताएं और नैतिकता प्रचलित होने लगी। अंग्रेज चले गए मगर उनकी मान्यताएं हमारे मन में घर कर गईं। हमारे भीतर अंग्रेजों की ग्रंथि बनी हुई है।’

अग्रवाल ने कहा, ‘हमारी परंपरा में कामसुख के प्रति जो विचार हैं, उनसे हम परिचित नहीं हैं। हम अपनी परंपरा के प्रकाश से दूर हो गए हैं। शायद इन्हीं तथ्यों को देखकर कार्ल मार्क्स जैसे विचारक ने यह मान लिया कि भारतीय समाज का अपना कोई इतिहास नहीं है। स्पष्ट है कि मार्क्स की यह मान्यता गलत थी।’

मैंने कहा, ‘हमारा भी इतिहास है। मौर्यवंश और गुप्तवंश तक हमारा इतिहास गौरवपूर्ण था। हमारे अपने दर्शन, दृष्टिकोण और विचार थे। हम अपनी परंपरा के प्रकाश में जगमगा रहे थे। हमारी गौरवशाली परंपरा का प्रमाण है - कोणार्क, पुरी और खजुराहों की मैथुन मूर्तियां। ये सीधा संदेश देती है कि यौनसुख में बुराई नहीं है। हमारी मनुस्मृति साफ-साफ कहती है- न मांस भक्षणे दोषो, न मद्ये न च मैथुने। मतलब यह है कि मांस, मदिरा और मैथुन में कोई दोष नहीं है। यह मनुष्य की प्रवृत्ति है। प्रवृत्ति ऐशा भूतानाम्। हमारी परंपरा कहती है कि मनुष्य अपनी स्वाभाविक वृत्ति का पालन करते हुए उससे ऊपर उठ जाता है। कामसुख एक स्वाभाविक प्रवृत्ति है। प्रश्नोपनिषद कहता है कि काम के बिना जीवन नहीं है। कामतृप्ति मनुष्य की स्वाभाविक कर्म पशुवृत्ति है।’
   
कुमार ने कहा, ‘बार्हस्पत्य सूत्र में लिखा है - काम एवैकः पुरुषार्थः। मनुष्य के मन में कामवृत्ति है और कामतृप्ति के उपाय ढूंढ़ने की उसकी प्रवृत्ति है।’